गाय सच्ची श्रीस्वरूपा (श्रीमती) राधा अष्टमी पर विशेष

Submitted by Shanidham Gaushala on 05 Sep, 2019

ॐ  नमो गौभ्य: श्रीमतीभ्य: सौरभेयीभ्य एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्वच पवित्राभ्यो नमो नम:।।

इस श्लोक में गाय को श्रीमती कहा गया है। लक्ष्मीजी को चंचला कहा जाता है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी स्थिर नहीं रहतीं। किन्तु गौओं में और यहां तक कि गौमय में इष्ट-तुष्टमयी लक्ष्मीजी का शाश्वत निवास है इसलिए गौ को सच्ची श्रीमती कहा गया है। सच्ची श्रीमती का अर्थ है कि गौसेवा से जो श्री प्राप्त होती है उसमें सद्-बुद्धि, सरस्वती, समस्त मंगल, सभी सद्-गुण, सभी ऐश्वर्य, परस्पर सौहार्द्र, सौजन्य, कीर्ति, लज्जा और शान्ति–इन सबका समावेश रहता है। शास्त्रों में वर्णित है कि स्वप्न में काली, उजली या किसी भी वर्ण की गाय का दर्शन हो जाए तो मनुष्य के समस्त कष्ट नष्ट हो जाते हैं फिर प्रत्यक्ष गौभक्ति के चमत्कार का क्या कहना?
यहां तक कि साक्षात् ब्रह्म भी गौलोक का परित्याग कर भारतभूमि पर गौकुल (गौधन) का बाहुल्य देखकर अत्यन्त लावण्यमय रूप धरकर उनकी सेवा के लिए अवतरित हुए। श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी कहते है कि भगवान गौविन्द स्वयं अपनी समृद्धि, रूपलावण्य एवं ज्ञान-वैभव को देखकर चकित हो जाते थे (३।२।१२)। श्रीकृष्ण को भी आश्चर्य होता था कि सभी प्रकार के ऐश्वर्य, ज्ञान, बल, ऋषि-मुनि, भक्त, राजागण व देवी-देवताओं का सर्वस्व समर्पण–ये सब मेरे पास एक ही साथ कैसे आ गए। वास्तव में यह सब उनकी गौसेवा का ही फल था। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने लोक को ही गौलोक नाम दिया। जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो नन्दबाबा ने कई लाख गौएं दान में दीं। नन्दबाबा को उनकी यह ‘नन्द’ की पदवी तथा श्रीराधा के पिता को ‘वृषभानुजी’ की पदवी गौओं की संख्या के ही कारण है। गर्गसंहिता के गौलोक-खण्ड में बताया गया है कि जो ग्वालों के साथ नौ लाख गायों का पालन करे, उसे ‘नन्द’ कहते हैं और पांच लाख गायों के पालक को ’उपनन्द’ कहते हैं। ‘वृषभानु’ उसे कहते हैं जो दस लाख गायों का पालन करता है।
गायें जहां स्वयं तपोमय हैं वहां अपनी सेवा करने वाले को भी तपोमय बना देती हैं। यज्ञ और दान का तो मुख्य स्तम्भ ही है गाय। अत: हमारी यही कामना है–
गावो ममाग्रतो नित्यं गाव: पृष्ठत एव च।
गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्।।
‘गौएं मेरे आगे रहें। गौएं मेरे पीछे रहें। गौएं मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओं के बीच में रहूं।’
गौ के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण (७।५।२।३४) में कहा गया है–’गौ वह झरना है, जो अनन्त, असीम है, जो सैंकड़ों धाराओं वाला है।’ पृथ्वी पर बहने वाले झरने एक समय आता है जब वे सूख जाते हैं। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी नहीं ले जा सकते हैं किन्तु गाय रूपी झरना इतना विलक्षण है कि इसकी धारा कभी सूखती नहीं। अपनी संतति (संतानों) के द्वारा सदा बनी रहती है। साथ ही इस झरने को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर ले भी जा सकते हैं।